क़िस्मत के हाथो वो ही मजबूर होते हैं
जो हक़ीक़त से बहुत दूर होते हैं
अक्सर मिलती है सज़्ज़ा उनको
जो हर तरफ से बेकसूर होते हैं
हम मिट्टी के आशियाने बनाते गए
बना बना कर फिर उन्हे गिराते गए
कोई हमें अपना न बना स्का
और हम हर किसी को अपना बनाते गए
मुक़द्दर से लड़ स्कू यह मेरी औकात नहीं
मैं वो शख्स हु खुदा जिसके साथ नहीं
वक़्त आएगा तो कह देंगे खुदा से
मेरा मुक़द्दर लिखना तेरे बस की बात नहीं
चाहते हैं जिन्हे अब उनके दिल बदल गए
समंदर गहरे है तो साहिल बदल गए
क़तल ऐसा हुआ टुकड़ो में मेरा
कभी बदले खंजर तो कभी क़ातिल बदल गए
मुझसे मेरे गुनाहो का हिसाब ना मांग मेरे खुदा
मेरी तकदीर लिखने में कलम तेरी ही चली है